मातृत्व और डायबिटीज: एक स्वस्थ शिशु के लिए सही मार्ग

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मातृत्व और डायबिटीज: एक स्वस्थ शिशु के लिए सही मार्ग

गर्भावस्था के दौरान डायबिटीज

डायबिटीज एक ऐसी स्थिति है जिसमें शरीर में ब्लड शुगर (ग्लूकोज) का स्तर सामान्य से अधिक हो जाता है, जिसे हाइपरग्लाइसीमिया कहा जाता है। अगर इसे नियंत्रित न किया जाए, तो समय के साथ यह गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं पैदा कर सकता है। हालांकि, एक स्वस्थ आहार का पालन करके, सक्रिय रहकर और डॉक्टर द्वारा दिए गए दवाइयों को नियमित रूप से लेकर डायबिटीज को प्रभावी रूप से नियंत्रित किया जा सकता है और इससे जुड़ी जटिलताओं को अक्सर रोका जा सकता है।

गर्भावस्था में डायबिटीज हर महिला को जानना जरूरी

गर्भावस्था के दौरान डायबिटीज के प्रकार

गर्भावस्था के दौरान डायबिटीज मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है:

1. जेस्टेशनल डायबिटीज (Gestational Diabetes)
यह डायबिटीज गर्भावस्था के दौरान उन महिलाओं में विकसित होती है जिन्हें पहले कभी डायबिटीज नहीं रही होती। आमतौर पर बच्चे के जन्म के बाद यह डायबिटीज खत्म हो जाती है, लेकिन इससे भविष्य में टाइप 2 डायबिटीज होने का खतरा बढ़ जाता है।

2. प्री-गेस्टेशनल डायबिटीज (Pregestational Diabetes)
यह डायबिटीज गर्भावस्था से पहले से ही महिला को होती है। यह दो प्रकार की हो सकती है:

  • टाइप 1 डायबिटीज: इसमें शरीर इंसुलिन नहीं बना पाता। इस प्रकार की डायबिटीज में इंसुलिन इंजेक्शन लेना ज़रूरी होता है।
  • टाइप 2 डायबिटीज: इसमें शरीर इंसुलिन का सही उपयोग नहीं कर पाता या पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन नहीं बनाता। इसे आमतौर पर दवाओं, जीवनशैली में बदलाव और कभी-कभी इंसुलिन से नियंत्रित किया जाता है।

मातृत्व और डायबिटीज: एक स्वस्थ शिशु के लिए सही मार्ग

गर्भावस्था में ब्लड शुगर को नियंत्रित रखना क्यों ज़रूरी है?

गर्भावस्था के दौरान ब्लड शुगर के स्तर को नियंत्रित रखना बहुत जरूरी होता है। यदि डायबिटीज को सही तरीके से नियंत्रित न किया जाए, तो इससे मां और बच्चे दोनों को गंभीर समस्याएं हो सकती हैं। ब्लड शुगर का सही प्रबंधन स्वस्थ गर्भावस्था सुनिश्चित करता है और नवजात शिशु के लिए जोखिम को कम करता है।

गर्भावस्था के दौरान डायबिटीज बच्चे को कैसे प्रभावित कर सकती है?

गर्भावस्था के दौरान प्लेसेंटा (गर्भनाल) बच्चे को पोषण और पानी प्रदान करती है और ऐसे हार्मोन्स बनाती है जो गर्भावस्था के लिए जरूरी होते हैं। लेकिन ये हार्मोन्स इंसुलिन के प्रभाव को कम कर सकते हैं — इसे इंसुलिन रेजिस्टेंस कहा जाता है, जो आमतौर पर गर्भावस्था के 20 से 24 सप्ताह के बीच शुरू होता है।

जैसे-जैसे प्लेसेंटा बढ़ती है, यह इंसुलिन को रोकने वाले हार्मोन और ज्यादा बनाती है। ब्लड शुगर को सामान्य रखने के लिए पैंक्रियास को अतिरिक्त इंसुलिन बनाना पड़ता है। अगर पैंक्रियास पर्याप्त इंसुलिन नहीं बना पाता, तो जेस्टेशनल डायबिटीज हो जाती है।

अगर महिला को पहले से डायबिटीज है, तो गर्भावस्था के दौरान इंसुलिन की ज़रूरतें बदल सकती हैं:

  • टाइप 1 डायबिटीज में इंसुलिन की मात्रा पहले से ज्यादा चाहिए होती है।
  • टाइप 2 डायबिटीज में इंसुलिन शुरू करना या उसकी खुराक बढ़ानी पड़ सकती है।

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शिशु के लिए जोखिम

यदि गर्भावस्था के दौरान ब्लड शुगर नियंत्रण में नहीं है, तो यह शिशु को नुकसान पहुंचा सकता है। हाई ब्लड शुगर स्तर जन्म से पहले और बाद में कई समस्याओं की संभावना को बढ़ा देता है, जैसे:

  • अत्यधिक जन्म वजन (बड़े आकार का बच्चा)
  • समय से पहले जन्म
  • जन्म के बाद लो ब्लड शुगर (हाइपोग्लाइसीमिया)
  • सांस लेने में तकलीफ
  • भविष्य में मोटापा और टाइप 2 डायबिटीज का खतरा

इसलिए गर्भावस्था में ब्लड शुगर को लक्षित स्तर पर बनाए रखना बच्चे के स्वास्थ्य के लिए बहुत ज़रूरी है।

शिशु के लिए जोखिम

जेस्टेशनल डायबिटीज का खतरा किन महिलाओं को अधिक होता है?

कुछ स्थितियां गर्भावस्था के दौरान जेस्टेशनल डायबिटीज का खतरा बढ़ा देती हैं, जैसे:

  • उम्र 25 वर्ष से अधिक होना
  • अधिक वजन या मोटापा
  • पिछली गर्भावस्था में जेस्टेशनल डायबिटीज होना
  • परिवार में डायबिटीज का इतिहास होना
  • पहले किसी बड़े बच्चे (9 पाउंड या उससे अधिक) को जन्म देना
  • पहले स्टिलबर्थ का अनुभव होना

कुछ नस्लीय या जातीय समूहों से संबंध रखना (जैसे अफ्रीकी-अमेरिकन, एशियाई, हिस्पैनिक/लैटिना, पैसिफिक आइलैंडर आदि)

जन्म के बाद होने वाली संभावित समस्याएं

  • बड़े आकार का शिशु (मैक्रोसोमिया) – इससे डिलीवरी के दौरान कंधे की चोट जैसी जटिलताओं का खतरा बढ़ जाता है।
  • लो ब्लड शुगर (हाइपोग्लाइसीमिया)
  • रक्त में कैल्शियम की कमी
  • लो आयरन लेवल
  • लाल रक्त कोशिकाओं की अधिकता, जिससे खून गाढ़ा हो सकता है
  • बिलीरुबिन का उच्च स्तर, जिससे पीलिया हो सकता है
  • समय से पहले जन्म (प्रीमैच्योर डिलीवरी)
  • हृदय का आकार बढ़ जाना
  • सांस लेने में कठिनाई

दीर्घकालिक स्वास्थ्य जोखिम

डायबिटीज से पीड़ित मां के बच्चों में भविष्य में मोटापा और टाइप 2 डायबिटीज होने की संभावना अधिक होती है।

गर्भावस्था के दौरान ब्लड शुगर को नियंत्रित रखना इन जोखिमों को कम करने और शिशु को स्वस्थ जीवन की शुरुआत देने के लिए बेहद आवश्यक है।

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गर्भावस्था के दौरान डायबिटीज की पहचान कैसे होती है?

गर्भावस्था के किसी भी समय आपके डॉक्टर डायबिटीज की जांच कर सकते हैं।

यदि आप टाइप 2 डायबिटीज के कुछ जोखिम कारकों, जैसे अधिक वजन, से ग्रसित हैं, तो आपकी शुरुआती प्रेग्नेंसी विजिट में ही स्क्रीनिंग की जा सकती है।

अधिकांश गर्भवती महिलाओं में 24 से 28 सप्ताह के बीच जेस्टेशनल डायबिटीज की जांच की जाती है। इसके लिए ओरल ग्लूकोज टॉलरेंस टेस्ट (OGTT) किया जाता है, जिसमें शरीर में चीनी के सेवन के बाद उसे कैसे प्रोसेस किया जाता है, यह देखा जाता है।

OGTT के दो प्रकार होते हैं:

  1. वन-स्टेप टेस्ट: उपवास के बाद 75 ग्राम ग्लूकोज युक्त घोल पिलाया जाता है और निर्धारित अंतराल में ब्लड शुगर की जांच की जाती है।

  2. टू-स्टेप टेस्ट: पहले बिना उपवास के 50 ग्राम ग्लूकोज दिया जाता है। अगर इसका परिणाम सामान्य से अधिक आता है, तो दूसरे चरण में उपवास के बाद 100 ग्राम ग्लूकोज दिया जाता है और कई बार ब्लड शुगर की जांच की जाती है।

इन परीक्षणों से यह पता चलता है कि आपको जेस्टेशनल डायबिटीज है या कोई अन्य प्रकार की डायबिटीज जो गर्भावस्था के दौरान नियंत्रण में रखनी होगी।

गर्भवती महिलाओं में डायबिटीज का इलाज और शिशु की देखभाल कैसे होती है?

अगर गर्भावस्था के दौरान आपको डायबिटीज हो जाती है, तो आपका डॉक्टर आपकी और आपके शिशु की नियमित निगरानी करेगा। आपको किसी ऐसे विशेषज्ञ के पास भी भेजा जा सकता है जो गर्भावस्था के दौरान डायबिटीज प्रबंधन में विशेषज्ञता रखते हैं।

ब्लड शुगर को सुरक्षित स्तर पर बनाए रखना सबसे आवश्यक है, क्योंकि यह शिशु के लिए जटिलताओं के जोखिम को कम करने का सबसे प्रभावी तरीका है। डायबिटीज को नियंत्रित करने के लिए आप को निम्नलिखित उपाय अपनाने होंगे:

  • ब्लड शुगर की नियमित जांच: डॉक्टर आपको दिन में कई बार घर पर ब्लड शुगर की जांच करने को कह सकते हैं।
  • इंसुलिन लेना: गर्भावस्था के दौरान इंसुलिन की ज़रूरतें बदल सकती हैं, इसलिए डोज़ को समय-समय पर एडजस्ट किया जा सकता है।
  • वजन का प्रबंधन: अगर आपका वजन अधिक है, तो डॉक्टर वजन बढ़ने को सीमित करने की सलाह देंगे ताकि जोखिम कम हो सके।

बच्चे की देखभाल इस बात पर निर्भर करती है कि आपकी गर्भावस्था और प्रसव के दौरान ब्लड शुगर कितना नियंत्रित रहा। नवजात की देखभाल उसकी उम्र, लक्षणों, संपूर्ण स्वास्थ्य और किसी भी समस्या की गंभीरता के अनुसार की जाती है।

गर्भवती महिलाओं में डायबिटीज का इलाज और शिशु की देखभाल कैसे होती है?

क्या जेस्टेशनल डायबिटीज से जुड़ी जटिलताओं को रोका जा सकता है?

हां, जेस्टेशनल डायबिटीज को सही तरीके से प्रबंधित करके मां और बच्चे दोनों के लिए जटिलताओं को रोका जा सकता है।

  • स्वस्थ आहार अपनाना
  • नियमित रूप से ब्लड शुगर की जांच करना
  • जरूरत पड़ने पर इंसुलिन लेना

ये सभी कदम इस स्थिति को नियंत्रित रखने में मदद करते हैं।

जेस्टेशनल डायबिटीज भविष्य में टाइप 2 डायबिटीज होने का खतरा भी बढ़ा देती है। इसलिए, डिलीवरी के 6 से 12 सप्ताह बाद डॉक्टर आपको दोबारा डायबिटीज की जांच के लिए बुला सकते हैं और समय-समय पर निगरानी जारी रख सकते हैं।

आपके बच्चे के डॉक्टर को भी जन्म के बाद बच्चे के ब्लड शुगर स्तर की निगरानी करनी चाहिए। नियमित जांच से समय रहते इलाज शुरू किया जा सकता है, जिससे बच्चे के दीर्घकालिक स्वास्थ्य जोखिम कम किए जा सकते हैं।

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